Munshi Premchand Ka Jeevan Parichay: प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के दोनों भाषाओं में अपनी अद्भुत रचनाओं के लिए जाने जाते हैं। उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, लेकिन उन्होंने अपनी रचनाओं में नवाब राय और प्रेमचंद जैसे उपनाम का प्रयोग किया। उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के पास लमही गांव में हुआ था। उनके पिता एक डाकघर के कर्मचारी और दादा एक पटवारी थे। उनकी माता जब वे आठ साल के थे तब ही गुजर गई और बाद में उनके पिता भी चोलेरा के कारण मर गए। उन्हें अपनी दादी ने पाला-पोसा और उनकी पढ़ाई का ख्याल रखा।
प्रेमचंद ने अपनी पढ़ाई मदरसे में शुरू की और उर्दू और फ़ारसी की भाषाओं को सीखा। बाद में उन्होंने हिंदी भाषा को भी अपनाया और उसमें अनेक रचनाएं कीं। उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज की विभिन्न समस्याओं और विरोधाभासों को उजागर किया। उन्होंने बाल विवाह, दहेज, जातिवाद, गरीबी, शोषण, अंग्रेज़ी शासन और राष्ट्रवाद जैसे विषयों पर अपनी कलम चलाई। उन्होंने यथार्थवाद की शैली में लिखा और अपने पात्रों को जीवंत और सच्चे बनाया।
प्रेमचंद ने अपने जीवन में 18 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, कई निबंध और अनुवाद किए। उनके प्रसिद्ध उपन्यासों में सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, गबन, कर्मभूमि और गोदान शामिल हैं। उनकी कहानियों का संग्रह मानसरोवर में किया गया है। उनकी कहानियां आज भी हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
प्रेमचंद की कहानी ईदगाह एक ऐसी कहानी है जिसमें एक छोटे बच्चे की निस्वार्थता और प्रेम को दर्शाया गया है। इस कहानी में हामिद नाम का एक यतीम बच्चा अपनी दादी के साथ रहता है। ईद के दिन वह अपने दोस्तों के साथ मेले में जाता है। वहां उसके पास सिर्फ तीन पैसे होते हैं, जो उसने अपनी दादी के लिए एक चिमटा खरीदने में लगा देते हैं। उसके दोस्त उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं, लेकिन वह उन्हें चिमटे के फायदे बताता है।
जब वह घर लौटता है और अपनी दादी को चिमटा देता है, तो वह उसकी बातों से भावुक हो जाती है और उसे आशीर्वाद देती है। यह कहानी हमें बताती है कि प्रेम और सहानुभूति का मूल्य कितना बड़ा होता है।
विवरण | जानकारी |
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नाम | मुंशी प्रेमचंद |
बचपन का नाम | धनपत राय श्रीवास्तव |
उर्दू रचनाओं में नाम | नवाबराय |
जन्म | 31 जुलाई, 1880 |
जन्मस्थान | लमही ग्राम, वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 8 अक्टूबर, 1936 |
पेशा | लेखक, अध्यापक, पत्रकार |
माता | आनंदी देवी |
पिता | अजायब राय |
पत्नी | शिवरानी देवी (1906-1938) |
पुत्र | अमृतराय, श्रीपथराय |
पुत्री | कमला देवी |
प्रमुख रचनाएँ | सेवासदन, निर्मला, रंगभूमि, कर्मभूमि, गबन, गोदान; कर्बला, संग्राम, प्रेम की वेदी; मानसरोवर: नमक का दारोगा, पूस की रात, बड़े भाई साहब, मंत्र |
भाषा | उर्दू, हिन्दी |
शैली | वर्णनात्मक, व्यंग्यात्मक, भावात्मक तथा विवेचनात्मक |
साहित्य काल | आधुनिक काल |
विधाएं | कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध |
साहित्य में स्थान | आधुनिक काल के सर्वोच्च उपन्यासकार एवं कहानीकार |
संपादन | माधुरी, मर्यादा, हंस, जागरण |
Munshi Premchand Ka Jeevan Parichay
मुंशी प्रेमचंद का जन्म 1880 में वाराणसी के पास लमही गांव में हुआ था। वे धनपत राय श्रीवास्तव के नाम से पैदा हुए, लेकिन वे अपनी कहानियाँ उर्दू में नवाब राय और हिंदी में मुंशी प्रेमचंद के नाम से लिखते थे। उनके दादा गुर सहाय राय और पिता अजायब राय नौकरी करते थे। वे गरीब परिवार से थे और उनका बचपन बहुत कठिनाइयों में बीता।
उनकी माँ आनंदी देवी जब वे सात साल के थे तब ही मर गई और उनके पिता भी जल्द ही चल बसे। उन्हें अपनी दादी ने पाला-पोसा और उनकी पढ़ाई का ख्याल रखा। वे बहुत ही साहसी और मेहनती थे और अपनी पढ़ाई को कभी नहीं छोड़ा।
उनका पहला विवाह उनके पिता ने उनकी इच्छा के बिना करा दिया था। वे तब कक्षा 9 में पढ़ रहे थे। उन्होंने अपनी पहली पत्नी को तलाक दे दिया और 1906 में शिवारानी देवी से दूसरी शादी की। शिवारानी देवी भी एक अच्छी साहित्यकार थीं और उन्होंने प्रेमचंद की मृत्यु के बाद “प्रेमचंद घर में” नामक एक पुस्तक लिखी।
प्रेमचंद की प्रारम्भिक शिक्षा एक मदरसे में हुई थी। वहां उन्होंने हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं को सीखा। 1898 में वे मैट्रिक पास करने के बाद, कुछ समय तक स्कूल में शिक्षक बने रहे। उन्होंने अपनी नौकरी के साथ-साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। 1910 में वे अंग्रेजी, दर्शन, फ़ारसी और इतिहास में इण्टरमीडिएट और 1919 में बीए डिग्री हासिल की। बीए करने के बाद, वे शिक्षा विभाग में सब-डिप्टी इंस्पेक्टर के पद पर काम करने लगे।
1921 में वे असहयोग आन्दोलन का समर्थन करने के लिए अपनी सरकारी नौकरी त्याग दिए और साहित्य के क्षेत्र में लग गए। उन्होंने कई पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना खुद का प्रेस चलाया। उन्होंने ‘हंस’ नामक एक मासिक पत्रिका भी शुरू की। वे लम्बे समय तक बीमार रहे और अंत में 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया।
मुंशी प्रेमचंद का विवाह
मुंशी प्रेमचंद जी का जीवन पारिवारिक चुनौतियों और आर्थिक संकटों से भरा रहा। उनकी पहली पत्नी ने घरेलू कठिनाइयों के चलते मायके का रुख किया और फिर कभी लौटकर नहीं आईं। इस घटना के बाद, मुंशी जी ने 1906 में शिवरानी देवी से विवाह किया, जो एक युवा विधवा थीं। इस विवाह से उन्हें तीन संतानें हुईं – श्रीपत राय, अमृत राय, और कमला देवी।
शिवरानी देवी ने ‘प्रेमचंद घर में’ नामक पुस्तक लिखी, जो 1944 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में उन्होंने मुंशी प्रेमचंद के उस पक्ष को उजागर किया, जो अब तक जनता से अछूता था। इसके बाद, उनके पुत्र अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ नाम से उनकी एक और जीवनी लिखी, जो 1962 में प्रकाशित हुई। इन जीवनियों ने मुंशी जी के जीवन और उनके साहित्यिक योगदान को एक नई पहचान दी।
Munshi Premchand का जीवन और उनका साहित्य आज भी हमें प्रेरित करता है। उनकी कहानियाँ और उपन्यास समाज के विभिन्न पहलुओं को छूते हैं और हमें जीवन की गहराइयों में झांकने का अवसर देते हैं। उनके द्वारा रचित पात्र और कथानक हमारे दिलों में आज भी जीवंत हैं।
असहयोग आंदोलन और मुंशी प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद जी ने अपनी लेखनी की शुरुआत उर्दू भाषा में की थी, और उनकी अनेक रचनाएँ बाद में हिंदी में अनुवादित हुईं। उनका पहला हिंदी उपन्यास ‘सेवासदन’ 1918 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद, 1921 में जब ‘महात्मा गांधी’ जी ने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया, तो मुंशी प्रेमचंद जी ने भी इसमें सक्रिय भाग लिया और अपनी सरकारी नौकरी के इंस्पेक्टर पद से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद, उन्होंने पूरी तरह से लेखन को अपना पेशा बना लिया और साहित्य साधना में लीन हो गए।
जब बात फिल्मी दुनिया की आती है, तो मुंशी प्रेमचंद जी का अनुभव कुछ अलग था। 1934 में, एक फिल्म कंपनी ने उन्हें मुंबई आने का निमंत्रण दिया और 8 हजार रुपये वार्षिक वेतन पर अनुबंधित किया। हालांकि, फिल्मों के लिए लिखी जाने वाली कहानियों के विषयों से उन्हें असहमति थी, जिसके कारण वह काम उन्हें पसंद नहीं आया। नतीजतन, वह एक साल बाद ही अपने गांव लमही वापस लौट आए और उसके बाद उन्होंने कभी भी कोई नौकरी नहीं की। उनका यह निर्णय उनके साहित्यिक जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना बन गया।
साहित्यिक परिचय: मुंशी प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद जी ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से एक विशेष पहचान बनाई। उन्होंने लगभग बारह उपन्यास और तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उन्होंने ‘माधुरी’ और ‘मर्यादा’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया और ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ जैसे पत्र भी प्रकाशित किए। उर्दू में उन्होंने ‘नवाब राय’ के नाम से लेखन किया। उनकी रचनाएँ आदर्शों और यथार्थ का संगम प्रस्तुत करती हैं, जिसमें सामान्य जीवन की सच्चाइयों को बखूबी दर्शाया गया है। उनकी कृतियों में समाज सुधार और राष्ट्रीयता के विचार स्पष्ट रूप से झलकते हैं।
मुंशी प्रेमचंद जी ने हिंदी साहित्य में एक नई क्रांति की शुरुआत की। उनका साहित्य समाज के प्रति सुधार और राष्ट्रीय भावनाओं से परिपूर्ण है। उनकी रचनाएँ उस समय की सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों का सटीक चित्रण करती हैं। उनके साहित्य में किसानों की दुर्दशा, नारी जीवन की व्यथा और वर्ण व्यवस्था की कठोरता के बीच जूझते हरिजनों की पीड़ा का गहरा वर्णन मिलता है।
प्रेमचंद जी की सहानुभूति हमेशा भारत के दलित वर्ग, शोषित किसानों, मजदूरों और उपेक्षित नारियों के प्रति रही। उनके साहित्य में समय के साथ चलने वाले तत्वों के साथ-साथ ऐसे अन्य तत्व भी हैं, जो उसे अनंतकाल तक प्रासंगिक बनाए रखते हैं। वे अपने युग के एक महान कलाकार थे, जिन्होंने हिंदी साहित्य को नए युग की आशाओं और आकांक्षाओं को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम बनाया।
मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास: साहित्य के अनमोल रत्न
मुंशी प्रेमचंद जी ने हिंदी साहित्य को अपने उपन्यासों के माध्यम से एक नई दिशा दी। उन्होंने कुल 18 उपन्यास लिखे, जिनमें ‘गोदान’, ‘सेवा सदन’, ‘प्रेमाश्रय’, ‘निर्मला’, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’, ‘कालाकल्प’, ‘गबन’, ‘प्रेमा’, और ‘रूठी रानी’ शामिल हैं। ‘रूठी रानी’ उनका एकमात्र ऐतिहासिक उपन्यास है। ‘प्रतिज्ञा’ उनके उर्दू उपन्यास ‘हमखुशी एक हमसुबाब’ का हिंदी रूपांतरण है, जिसे ‘प्रेमा अर्थात् दो सखियों का विवाह’ के नाम से नए सिरे से प्रकाशित किया गया। ‘वरदान’ उनके उर्दू उपन्यास ‘जलवए ईसार’ का हिंदी अनुवाद है। ‘मंगल सूत्र’ उनका अंतिम और अधूरा उपन्यास है।
मुंशी प्रेमचंद जी के उपन्यासों में जीवन के विभिन्न पहलुओं का चित्रण मिलता है। उनके पात्र और कहानियाँ हमें उस समय के समाज की एक झलक प्रदान करते हैं। उनके उपन्यासों में नारी जीवन, किसानों की समस्याएँ, और सामाजिक विषमताएँ जैसे मुद्दों को बड़ी संवेदनशीलता के साथ उठाया गया है। उनकी रचनाएँ आज भी हमें प्रेरित करती हैं और हमारे साहित्यिक खजाने का एक अनमोल हिस्सा हैं।
मुंशी प्रेमचंद की कहानियां: जीवन के रंग
मुंशी प्रेमचंद जी ने अपनी साहित्यिक यात्रा में 300 से भी अधिक कहानियों का सृजन किया, जिन्हें ‘मानसरोवर’ शीर्षक से आठ भागों में प्रकाशित किया गया। उनकी कहानियां जीवन के विविध आयामों को छूती हैं और पाठकों को गहराई से प्रभावित करती हैं। यहां हम उनकी कुछ प्रतिष्ठित कहानियों का उल्लेख कर रहे हैं:
- दो बैलों की कथा: दो बैलों की दोस्ती और उनके जीवन की एक अनूठी गाथा।
- पंच परमेश्वर: न्याय और धर्म के बीच की दुविधा को दर्शाती एक कहानी।
- ईदगाह: एक बच्चे की मासूमियत और उसके दादी के प्रति प्रेम की कहानी।
- ठाकुर का कुआं: सामाजिक असमानता और जातिवाद के खिलाफ एक प्रतिरोध।
- पूस की रात: एक गरीब किसान की सर्द रात में अपने खेत की रखवाली की कहानी।
- बड़े घर की बेटी: पारिवारिक मूल्यों और नैतिकता की एक झलक प्रस्तुत करती कहानी।
- नमक का दरोगा: ईमानदारी और नैतिकता के महत्व को उजागर करती एक कहानी।
- कफ़न: गरीबी और निराशा के बीच एक परिवार की दुखद कहानी।
इन कहानियों के अलावा भी मुंशी प्रेमचंद जी ने अनेक कहानियां लिखीं, जिन्होंने समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया। उनकी कहानियां आज भी हमें जीवन की सच्चाइयों से रूबरू कराती हैं और हमारे दिलों को छू जाती हैं। उनकी रचनाएँ समय के साथ और भी अधिक प्रासंगिक होती जा रही हैं।
मुंशी प्रेमचंद: निबंध और अनुवाद की दुनिया
मुंशी प्रेमचंद जी ने अपने लेखन के माध्यम से न केवल उपन्यास और कहानियां, बल्कि गहन निबंध भी लिखे। उनके निबंधों में ‘पुराना जमाना नया जमाना’, ‘स्वराज के फायदे’, ‘कहानी कला’, ‘कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार’, ‘हिन्दी-उर्दू की एकता’, ‘महाजनी सभ्यता’, ‘उपन्यास’, और ‘जीवन में साहित्य का स्थान’ जैसे विषय शामिल हैं।
उन्होंने विश्व साहित्य के महान लेखकों की रचनाओं का भी अनुवाद किया। ‘टॉलस्टॉय की कहानियाँ’ (1923), गाल्सवर्दी के नाटक ‘हड़ताल’ (1930), ‘चाँदी की डिबिया’ (1931), और ‘न्याय’ (1931) उनके प्रमुख अनुवाद हैं। रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्यास ‘फसान-ए-आजाद’ का हिन्दी अनुवाद ‘आजाद कथा’ भी काफी प्रसिद्ध हुआ।
नाटकों की बात करें तो, ‘संग्राम’ (1923), ‘कर्बला’ (1924), और ‘प्रेम की वेदी’ (1933) उनकी नाट्य रचनाओं में से हैं।
बाल साहित्य में उन्होंने ‘रामकथा’, ‘कुत्ते की कहानी’, और ‘दुर्गादास’ जैसी रचनाएँ कीं। ‘प्रेमचंद विविध प्रसंग’ और ‘प्रेमचंद के विचार’ उनके विचारों को दर्शाते हैं।
संपादन के क्षेत्र में भी उन्होंने ‘माधुरी’ और ‘मर्यादा’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया और ‘सरस्वती’ प्रेस के माध्यम से ‘जागरण’ और ‘हंस’ जैसी पत्रिकाएँ निकालीं। उर्दू में उन्होंने ‘जमाना’ पत्रिका में ‘नवाब राय’ के नाम से लेखन किया।
मुंशी प्रेमचंद जी की ये रचनाएँ हमें उनके विचारों और साहित्यिक दृष्टिकोण की गहराई से परिचित कराती हैं और आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
मुंशी प्रेमचंद के प्रेरणादायक विचार
मुंशी प्रेमचंद जी के जीवन परिचय को समझने के बाद, आइए हम उनके कुछ अनमोल विचारों पर नजर डालते हैं:
- सफलता की शक्ति: सफलता हमारी खामियों को दूर करने की अद्भुत क्षमता रखती है।
- दौलत और सम्मान: जो सम्मान दौलत से मिलता है, वह व्यक्ति का नहीं, उसकी दौलत का होता है।
- लेखक का धर्म: मैं एक लेखक हूँ, और अगर मैं एक दिन भी लिखे बिना रहूँ, तो मुझे खाने का अधिकार नहीं है।
- कर्तव्य और सौभाग्य: सौभाग्य उन्हीं को मिलता है जो अपने कर्तव्यपथ पर अटल रहते हैं।
- ज्ञान का महत्व: जैसे अंधे के लिए आईना बेकार है, वैसे ही बुद्धिहीन के लिए ज्ञान निरर्थक है।
- यश और त्याग: यश त्याग से मिलता है, छल-कपट से नहीं।
- स्नेह के बंधन: संसार के सभी रिश्ते प्रेम पर आधारित हैं; जहां प्रेम नहीं, वहां कुछ भी मूल्यवान नहीं।
- चापलूसी का प्रभाव: चापलूसी का जहर तब तक हानि नहीं पहुंचा सकता जब तक आप इसे अमृत समझकर न पी लें।
- ज्ञान की प्राप्ति: कभी-कभी हमें उन लोगों से भी सीखने को मिलता है जिन्हें हम अज्ञानी मानते हैं।
- गलतियों से सीखना: गलती करना इतना बुरा नहीं है जितना उन्हें दोहराना।
मुंशी प्रेमचंद जी के ये विचार हमें जीवन के प्रति एक नई दृष्टि देते हैं और हमें प्रेरित करते हैं कि हम अपने कर्मों में उत्कृष्टता और नैतिकता को अपनाएं। उनके ये विचार आज भी हमारे लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने उनके समय में थे।
मुंशी प्रेमचंद अपने अंतिम चरण में
मुंशी प्रेमचंद जी ने 8 अक्टूबर 1936 को इस दुनिया को अलविदा कहा। उनके उपन्यासों में भारतीय ग्रामीण जीवन की गहराई और सच्चाई को दर्शाया गया है। उन्होंने हिंदी उपन्यास साहित्य को एक नई ऊंचाई दी, जिसे आज भी आने वाली पीढ़ियाँ एक मानक के रूप में देखती हैं। उनके उपन्यास और कहानियाँ विश्वभर की अनेक भाषाओं में अनुवादित हो चुकी हैं। मुंशी प्रेमचंद जी हिंदी साहित्य के एक अमिट चिन्ह हैं और सदैव रहेंगे। उनकी रचनाएँ और उनकी साहित्यिक विरासत आज भी हमें प्रेरित करती हैं और हमारे साहित्यिक आकाश में एक चमकता सितारा बनी हुई हैं।